सोमवार, 3 दिसंबर 2018

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।
लिपटे रहे अल्फ़ाज़ किताब से ।

सिमेटकर हाल लफ्ज़ अपना ,
सुनते रहे हर सवाल अदाब से ।

उठेगी नज़र नज़्म दाद की खातिर ,
मजबूर रही मगर जुबां ज़वाब से ।

कहने को बहुत कुछ रहा पास मेरे ,
कहते रहे गज़ल पर वो बड़े रुआब से ।

अल्फ़ाज़ में सवाल जो करती रही ,
सिमटी रही निग़ाह वो नक़ाब से ।

रहे लफ्ज़ जवां ग़जल की खातिर ,
रही दूर एक नज़्म मगर शवाब से ।

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।
लिपटे रहे अल्फ़ाज़ किताब से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

(महदूद-सीमित)
डायरी 6(54)




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