शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

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जो कुछ उधड़ी सी चिथरन सी ।
वो कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

 सिसक रही है अब वो नातों में ,
 अहसासों की एक चितवन सी ।

सिमट चली है कुछ अरमानों में ,
जानी पहचानी जो अनबन सी ।

 उलझ रहे से ताने वाने नातो में ,
 कायम है रिश्तों की उलझन सी 

   जो ख़्याल कहे पिरोकर नज़्मों में ,
   वो आवाज़ रही एक सिरहन सी ।

  "निश्चल" है संग निग़ाहें अपनो में ,
   है ये सर्द बड़ी सँग ठिठरन सी ।

     .. विवेक दुबे"निश्चल"@....
  डायरी 6(91)
  


  

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