मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

गजल

757
- राज़-ऐ-वक़्त ---

2122 , 12 12 ,22

दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।

 छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
 यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।

ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।

खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।

रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।

जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।

राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 7

रोकती चाह चाँद के वास्ते ,
चाँदनीं हिज़्र तले,ढल जाने में ।

छोड़ती राह चाँद के वास्ते ,
चाँदनी हिज़्र तले ढल जाने में ।

यूँ ही तुम मुझसे वात करते हो ।

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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