अपनों में हो पहचान गैरो में मेरी नही ।
हाँ हूँ मैं आम तासीर खास मेरी नही ।
रह जाऊँ अपनों में कुछ पल याद ,
याद आऊँ ज़माने को चाह मेरी नही ।
दायरा खो बे-दायरा हो जाऊँ ,
यह तबियत होती मेरी नही ।
मेरे अपने ही सहारा हो मेरे ,
गैरो के सहारों की नियत नही ।
रहूँ मशहूर अपनों में ख़ुदा सदा ,
गैर-ओ-निग़ाह शोहरत मंशा मेरी नही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
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