सोमवार, 2 जुलाई 2018

नश्तर चुभोते रहे

यूँ अहसास नश्तर चुभोते रहे ।
खामोश लफ्ज़ जज़्बात रोते रहे ।

डूबकर दरिया भी समंदर में ,
 अपने आप को भिंगोते रहे ।

 तिश्निगी न चाही कभी मगर ,
 उजाले हर के साँझ खोते रहे ।

 डूबकर उभर जाएंगे हम कहीं ,
 इस ख्याल से खुद को डुबोते रहे ।

 उस साँझ की निशानी को ,
  सुबह तक हम संजोते रहे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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