यूँ अहसास नश्तर चुभोते रहे ।
खामोश लफ्ज़ जज़्बात रोते रहे ।
डूबकर दरिया भी समंदर में ,
अपने आप को भिंगोते रहे ।
तिश्निगी न चाही कभी मगर ,
उजाले हर के साँझ खोते रहे ।
डूबकर उभर जाएंगे हम कहीं ,
इस ख्याल से खुद को डुबोते रहे ।
उस साँझ की निशानी को ,
सुबह तक हम संजोते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
खामोश लफ्ज़ जज़्बात रोते रहे ।
डूबकर दरिया भी समंदर में ,
अपने आप को भिंगोते रहे ।
तिश्निगी न चाही कभी मगर ,
उजाले हर के साँझ खोते रहे ।
डूबकर उभर जाएंगे हम कहीं ,
इस ख्याल से खुद को डुबोते रहे ।
उस साँझ की निशानी को ,
सुबह तक हम संजोते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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