सोमवार, 2 जुलाई 2018

वक़्त को यूँ बनाना पड़ा है

हमे भी वक़्त को यूँ बनाना पड़ा है।
हाथ सबसे हमें भी मिलाना पड़ा है।

 छुपा कर रंज दिल में अपने सारे ।
 सामने दुनियाँ के मुस्कुराना पड़ा है।

 बाहर-ऐ-चमन सामने नहीं कोई ,
सूखे फूलों से गजरा सजाना पड़ा है ।

 घटाएँ सावन की वो बरसी नहीं  ,
 निगाहों को सावन बनाना पड़ा है ।

 हम सफ़र कोई नही राह में मेरा ,
 रास्तों को हम सफ़र बताना पड़ा है।

 क़ुसूर रहा नही कभी कोई मेरा ,
 हर बार उसको मनाना पड़ा है ।

 वो बुत न रहे निगाहों में दुनियाँ की ,
"निश्चल" को चलना सिखाना पड़ा है।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 2/7/18

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...