दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
तिमिर समेट तले अपने ,
स्वयं रहित हो जाते हैं ।
देकर उज्वल आभा जगमग ,
एक राह नई फिर दिखलाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
आशाओं की किरणों सँग ,
हर अंधकार पर छा जाते हैं ।
जलकर स्वयं बारबार यूँ हीं ,
ज़ीवन की परिभाषा दे जाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
देकर सकल तरल अपना ,
शेष रहित स्वयं हो जाते है ।
नहीं पराजय कभी कहीं उनकी,
स्व-प्रकाश आभित जो हो जाते है ।
हर चलते तम अंश अंश का ,
"निश्चल" फिर भी कहलाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
अंधियारे पिघलाते हैं ।
तिमिर समेट तले अपने ,
स्वयं रहित हो जाते हैं ।
देकर उज्वल आभा जगमग ,
एक राह नई फिर दिखलाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
आशाओं की किरणों सँग ,
हर अंधकार पर छा जाते हैं ।
जलकर स्वयं बारबार यूँ हीं ,
ज़ीवन की परिभाषा दे जाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
देकर सकल तरल अपना ,
शेष रहित स्वयं हो जाते है ।
नहीं पराजय कभी कहीं उनकी,
स्व-प्रकाश आभित जो हो जाते है ।
हर चलते तम अंश अंश का ,
"निश्चल" फिर भी कहलाते हैं ।
दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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