शनिवार, 9 मई 2015

ज़िन्दगी


हाँ नदियाँ सी ही तो है
यह ज़िन्दगी ....
बहना ही जिसकी नियति
कभी शांत
कभी विकराल
कभी इठलाती
कभी बल खाती
यहाँ वहाँ मुड़ जाती
कही सकरी सी धार
कही एक दम विशाल
कुछ ले लिया अपने साथ
कुछ छोड़ दिया किनारो पर
बहती है जो अपने उदगम् से
अपने प्रियतम के
मिलन तक की यात्रा के बीच
और समां जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
अपने आस्तित्व को मिटा कर .......
......विवेक.......

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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