तृष्णा मन की आज,
उजागर कर दी,आँखों ने ।
सकल ब्रम्हांड सरीखी,
झलकी इन आँखों से ।
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प्रारम्भ शून्य अंत शून्य है ,
तुझमे ही रहना है ।
बस तुझमे ही तो खोना है ।
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मिथ्या सब कुछ है यह ,
जगत सपन सलोना है ।
निकल शून्य से फिर,
शून्य ही फिर होना है ।
.....विवेक.....
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