बुधवार, 8 अगस्त 2018

अपराजिता छंद




*अपराजिता छंद*

(नगण नगण रगण सगण लघु गुरु )
111   111  212  112  1  2)

विधान-14 वर्ण4 चरण समतुकांतक

 सुबह सहर भोर भी धुंधली खिली ।
 ठहर क्षितिज साँझ भी सहमी मिली ।
 बिखर छितर चांदनी न कहीं ढली ।
 निकल उदय लालिमा न अभी चली।

 सतत चलत राह भी अब है मिली ।
 मिलकर अब आस में नजरें खिली ।
 रह कर अब साथ में जिनके अभी ।
 कलम अब रुके नही जिससे कभी ।

 निखर डगर शब्द जीवन के गहूँ ।
 सहज निखर आज मैं तन के कहूँ ।
 रचकर मन भाव मैं चलता चलूँ।
 हरक्षण लिख हाल मैं लिखता रहूँ ।

  ......विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(77)
Blog post 8/8/18

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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