*अपराजिता छंद*
(नगण नगण रगण सगण लघु गुरु )
111 111 212 112 1 2)
विधान-14 वर्ण4 चरण समतुकांतक
सुबह सहर भोर भी धुंधली खिली ।
ठहर क्षितिज साँझ भी सहमी मिली ।
बिखर छितर चांदनी न कहीं ढली ।
निकल उदय लालिमा न अभी चली।
सतत चलत राह भी अब है मिली ।
मिलकर अब आस में नजरें खिली ।
रह कर अब साथ में जिनके अभी ।
कलम अब रुके नही जिससे कभी ।
निखर डगर शब्द जीवन के गहूँ ।
सहज निखर आज मैं तन के कहूँ ।
रचकर मन भाव मैं चलता चलूँ।
हरक्षण लिख हाल मैं लिखता रहूँ ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(77)
Blog post 8/8/18
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