गुरुवार, 13 सितंबर 2018

मुक्तक 494/502

494
इस संबल के बल पर ही ,
 जीत हिमालय को आते है ।
 गढ़कर कश्ती अरमानों की,
 "निश्चल" सागर से टकराते है ।
... 
495
आप जरा चलकर तो देखो ।
कागज़ सा गलकर तो देखो ।
 बन जाएगा एक बुत कोई ,
 "निश्चल"सा मचलकर देखो ।
.....
496
 चलो कोई तो बहाना मिला ।
 साथियों का सहारा मिला ।
 एक बहाने से ही मिले सभी ,
 बहाने को भी बहाना मिला।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
497
बहुत खूब कहा,बा-खूब कहा ।
अश्क़ स्याही ने,दुनियाँ दस्तूर कहा ।
 लूटता ही रहा,जमाना अक्सर मुझे ।
 और जमाने को,मैंने मेहबूब कहा ।
... 
 498
इस जाम का कोई अंजाम तो होगा।
 उस शाम का कोई पैगाम तो होगा ।
 शुरू ही हुआ ये सफ़र अभी अभी ,
 रुकना नही कहीं मुक़ाम जो होगा ।
.... 
499
आगम निर्गम से रिक्त हृदय ,
 करता ना कोई प्रतिकार । 
 शांत हृदय पा जाता ,
 अंनत अंतरिक्ष सा बिस्तार ।
 .... 
500
गुजरती गुजर, रही ज़िंदगी ।
 ठहरती ठहर, रही जिंदगी ।
 बदलते कब, अब हालात है,
 मचलती ग़जल, रही जिंदगी ।

  ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3
 501
नज़्म अल्फ़ाज़ उसकी,
  सँवार दी जरा जरा ।
  रुख़सार गिरी ज़ुल्फ़ को ,
   यूँ हवा दी जरा जरा ।
..502
स्तनपान दिवस पर दो शब्द

वो भी एक साहित्य सा होगा ।
जो उस आँचल को छुआ होगा ।
जागी होगी ममता नीरव सी ,
 मातृत्व सुख जब जिया होगा ।
... *विवेक दुबे"निश्चल"*@...

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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