गुरुवार, 13 सितंबर 2018

मुक्तक 518 / 530

518
 चेहरों पे नही नूर सा ।
यह कैसा दस्तूर सा ।
पढ़ते ही रहे नज़्म को ,
अश्क़ भी था रहा दूर सा ।
...518/a
सफ़र से सफ़र का सफ़र ।
 चलता रहा मुख़्तसर सफ़र।
 खोजता रहा किनारों को ,
 दरिया किनारों पर बहकर ।
.. 519
सबकी अपनी अपनी मर्ज़ी है ।
सबका अपना अपना सौदा है ।
 वो भी उनका एक मसौदा था ,
 यह भी इनका एक मसौदा है। 
... 521
बांट दी गर अगर जरा की खुशी जरा ।
क्या कम हुआ तू जरा बता मुझे जरा । 
कहता रहा ग़जल महफ़िल में बैठकर ,
क्युं हर शख्स मुझसे बे-खबर बता जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
522
रिक्त हृदय तप्त धरा सा ।
नैनन सावन बिखरा सा ।
शांत सरोवर "निश्चल" मन
 जल अंबुज छितरा सा ।
... 523
तू खुद को गढ़ कुछ ऐसा ।
 ना हो कुछ ऐसा ना वैसा ।
 पथ नाप रहा कदम कदम ,
 दूर क्षितिज कोना फिर कैसा ।
.. 524
मुक़ाम से मुक़ाम तक ।
  नही कहीं विश्राम तक ।
  चाह नही सितारों की ,
 सफ़र बस आसमान तक ।
...525
सम्हालते रहे हाल से, हालात को ।
जज़्ब कर निग़ाह से ,हर बात को ।
दिल हसरत-ऐ-उजाले लिए हुए ,
 भुलाते रहे हम, हर गुजरी रात को ।

...  विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

526
अहंकार की हार है ।
 भले नही प्रतिकार है ।
गिरा वो पाषाण धरा ही ,
 बड़ी जोर दिया उछार है ।
....527
हम कुछ नए नारे फिर गढ़ लेंगे ।
हर नाकामी को उनके सर मढ़ देंगे ।
मांगेंगे हिसाब अभी तो उनसे ही ,
 अपना हिसाब जब देंगे तब देंगे।
... 528
इश्क़ का कुछ यूँ मसौदा है ।
के यह ताउम्र का सौदा है ।
उसे पा जाने की चाहत में ,
 खुद ने खुद को खोजा है ।
...(सूफ़ियाना अंदाज)


डायरी 3
 ईस्वर (मेहबूब)
529
तप्त हृदय का सोम है ।
मेरे मेहबूब सा कौन है ।
समाया मन मंदिर भीतर,
देखता मन, दृष्टि मौन है ।
.530
वो मेहबूब का मेहबूब है ।
वो यूँ ही नही मशहूर है  ।
 धड़कता रूह सा ज़िस्म में,
 वो नहीं कभी पल को दूर है  ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...