छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा,तापित तन ।
भोली सी इन आँखों से ,
खोता क्यों चंचलपन ।
वांट रहे हैं, जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।
ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।
इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।
खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।
झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।
राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
तप्त धरा सा,तापित तन ।
भोली सी इन आँखों से ,
खोता क्यों चंचलपन ।
वांट रहे हैं, जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।
ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।
इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।
खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।
झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।
राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा , तापित तन ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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