सोमवार, 10 सितंबर 2018

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा,तापित तन ।

भोली सी इन आँखों से ,
खोता क्यों चंचलपन ।

वांट रहे हैं, जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।

ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।

इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।

खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।

झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।

राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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