गुरुवार, 13 सितंबर 2018

मुक्तक

462
वो जाम सा अंजाम था ।
निग़ाहों से अपनी हैरान था ।
नही था कोई रिंद वो साक़ी,
जिंदगी उसका ही नाम था ।
.... 
463
निगाहों को निग़ाहों से धोका हुआ है ।
ज्यों जागकर भी कोई सोया हुआ है ।
झुकीं हैं निग़ाहें यूँ हर शख़्स की क्युं ,
ज्यों निग़ाहों का निग़ाहों से सौदा हुआ है ।
....
464
चलते रहो साथ हर दम मगर, 
 बातें वफ़ा की किया ना करो ।
 घुटते हों अरमां जहाँ दिल में ,
 वो ज़िंदगी तुम जिया ना करो ।
... 
465
तू चला जिस सफ़र पर 
 उस का मुक़ाम होगा कोई ।
ढल जाए जो शाम कहीं , 
सुबह का अंजाम होगा कोई ।

विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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