503
नफा नुक़सान देखते रहे ।
ज़िस्म तिलिस्म खेचते रहे ।
रूह साँसे तोड़ती रहीं ,
ज़िस्म रिवाज़ देखते रहे ।
...504
मैं लिखता चला निग़ाह से ।
जीत ना सका अपनी चाह से ।
होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
...505
यूँ मेरा हुनर हारता रहा ,
मैं आज को बिसारता रहा ।
रुसवा रहा जमाना मुझसे,
निग़ाह निग़ाह निहारता रहा ।
... "निश्चल@"..
डायरी 3
नफा नुक़सान देखते रहे ।
ज़िस्म तिलिस्म खेचते रहे ।
रूह साँसे तोड़ती रहीं ,
ज़िस्म रिवाज़ देखते रहे ।
...504
मैं लिखता चला निग़ाह से ।
जीत ना सका अपनी चाह से ।
होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
...505
यूँ मेरा हुनर हारता रहा ,
मैं आज को बिसारता रहा ।
रुसवा रहा जमाना मुझसे,
निग़ाह निग़ाह निहारता रहा ।
... "निश्चल@"..
डायरी 3
506
काल के प्रहार से , कल हारता आज से ।
जीता न आज भी , काल के काल से ।
कर्म के मान से , टक़ता रहा भाल पे ।
देता रहा फ़ल , कल काल के काल से ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
507
तलाश को तलाशता आदमी ।
वक़्त को वक़्त से हारता आदमी ।
हारता जीतकर हालात से ,
हालात को सँवारता आदमी ।
... "निश्चल"@...
508
एक दिन तो याद कर लें ,
उस सहोदरा को ।
गिरते नैनन नीर में भी ,
जिसका हम होंसला हों ।
...
509
बून्द बून्द से मिल जाते है ।
शब्द सर कंज खिल जाते हैं ।
खिलकर निश्चल जल पर ,
निष्छल भाव लहराते है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
510
111 211 211 212
खिल खिला कर छूट अश्रु चला ।
गिर धरा पर टूट अश्रु चला ।
तज दिए सुख नैनन छीर के ,
नयन बिछुड़ ज़ीवन खो चला ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
511
मैं ना वक़्ता हूँ ,ना ज्ञाता हूँ ।
कुछ लिख ,ना लिख पता हूँ ।
मैं बस इतना कह पता हूँ ,
मैं बस शब्द शब्द प्यासा हूँ ।
512
जिंदगी का नाम ही मौज है ।
उलझने को तो रोज रोज है ।
डूबता क्यों इतना जिंदगी में,
किनारा तो तेरा उस और है ।
--
513
चाहता था जीतना मैं वक़्त को ,
हारकर वक़्त से लफ्ज़ उभारा था ।
इस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा है ।
उस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा था ।
....
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
514
अंनत उजाले रोशनी से चले ।
गहन तम तले वो क्यों ढ़ले ।
ये रिक्त सा व्योम भी ,
आसरा बन ना मिल चले ।
.515
अंकुर फूटे छाया के ।
कोंपल ऐसे माया के ।
कोयल जैसे स्वर है ,
देखो अब कागा के ।
..516
सत्य क्या है के कुछ नही ।
सही क्या है के कुछ नही ।
रहता हूँ मैं यूँ अजनबी सा ,
भुलाता हूँ के कुछ भी नही ।
... 517
भरोसे पर ,भरोसा कर बैठा ।
खुद को ,बे-भरोसा कर बैठा ।
कहता रहा दिल की अपनी ,
निग़ाह का पोसा कर बैठा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
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