बुधवार, 28 नवंबर 2018

एक भृम वहम पलता रहा ।

एक भृम वहम पलता रहा ।
 पिघलता चाँद ढलता रहा ।

ओढ़कर चूनर सितारों की,
 रात भर चाँद चलता रहा ।

उतरेगी शबनम जमीं पर ,
 ख़्याल दिल पलता रहा ।

 अपने डूबने के इरादे लिये ,
 चलता दिनकर जलता रहा ।

आया न लौटकर फिर कभी ,
समय समय को छलता रहा ।

लौट आऊँगा फिर महफील में ,
 जज्वा ज़िगर मचलता रहा ।

 गुजरता रहा राह जिंदगी पर ,
"निश्चल" गिरकर सम्हलता रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(45)

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