गुरुवार, 29 नवंबर 2018

अपने अरमानों को ,

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

गढ़ मंज़िल कोई ऐसी,
मंज़िल पर पहला ,
भोर उजाला आये ।

करता चल अपनी बातें ,
अपनी बातों से ,
बात बात का ,
गहरा भाब ,
उभारा जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

खुद को ,
खुद में रखकर ,
शब्द शब्द का ,
अर्थ निकाला जाये ।

लिखकर गीत ,
समय समय के ,
समय समय में ,
ढाला जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

दिनकर के ,
उजियारों में चलकर ,
एक स्वप्न सुनहरा ,
पाला जाये ।

भोर चढ़े ,
किरण कांति सँग ,
संध्या तक ,
अहसास सुहानी ,
छाया जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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