दिन गुजरते रातों से ।
खोते कुछ अहसासों से ।
सिमट रहे साँझ तले ,
अपने ही अपने वादों से ।
रिक्त हुए वो मेघ घने ,
तटनी भरते जो हाथों से ।
सहज उड़े बून्द बून्द को ,
रीत गए अब वो नातों से ।
अस्तित्व हीन से अब वो ,
सिमट रहे खुद सांसो से ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(46)
दिन गुजरता रातों सा ।
खोता कुछ अहसासों सा ।
सिमट रहा साँझ तले ,
अपना ही अपने वादों सा ।
खोते कुछ अहसासों से ।
सिमट रहे साँझ तले ,
अपने ही अपने वादों से ।
रिक्त हुए वो मेघ घने ,
तटनी भरते जो हाथों से ।
सहज उड़े बून्द बून्द को ,
रीत गए अब वो नातों से ।
अस्तित्व हीन से अब वो ,
सिमट रहे खुद सांसो से ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(46)
दिन गुजरता रातों सा ।
खोता कुछ अहसासों सा ।
सिमट रहा साँझ तले ,
अपना ही अपने वादों सा ।
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