खुशियों को क्यों आम करूँ ।
ख़ुद को क्यों बदनाम करूँ ।
बयां कर अल्फ़ाज़ मैं अपने ,
दिल की बातें क्यों नीलाम करूँ ।
ख़ुशनुमा ख़्याल सुहानी भोर से ,
सुनाकर क्यों ढ़लती शाम करूँ ।
देखकर तिलिस्म दुनियाँ का ,
बस इसे दूर से ही सलाम करूँ ।
नही रहूँगा तन्हा कही भी मैं ,
ख़्याल जो अपने नाम करूँ ।
है रिश्तों में आलम खुदगर्ज़ी का ,
"निश्चल" क्या यक़ी एहतराम करूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 29/11/18
ख़ुद को क्यों बदनाम करूँ ।
बयां कर अल्फ़ाज़ मैं अपने ,
दिल की बातें क्यों नीलाम करूँ ।
ख़ुशनुमा ख़्याल सुहानी भोर से ,
सुनाकर क्यों ढ़लती शाम करूँ ।
देखकर तिलिस्म दुनियाँ का ,
बस इसे दूर से ही सलाम करूँ ।
नही रहूँगा तन्हा कही भी मैं ,
ख़्याल जो अपने नाम करूँ ।
है रिश्तों में आलम खुदगर्ज़ी का ,
"निश्चल" क्या यक़ी एहतराम करूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 29/11/18
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें