ओ राजनीति के रणकारों ।
ओ सत्ता के फनकारों ।
भारत माता के बेटों की ,
कब तक बलि चढ़ाओगे ।
मातृ भूमि के लालों पर ,
घात पे घात कराओगे ।
अफ़सोस न हीं कोई पछतावा ।
बस घड़ियाली आँसू बहाओगे ।
पठानकोट उरी अब पुलवामा ।
कितनी बहनों का सुहाग छुड़ाओगे ।
ओ राजनीति के राणकारों ।
ओ सत्ता के फनकारों ।
बातों को अब विश्राम धरो ।
अब तो सीधा संग्राम करो ।
छुरा घोंपते जो छुप छुप कर ,
घर में घुसकर उनका संहार करो ।
न रहें जड़ें जमीं भीतर तक ,
जड़ पर ही अब बार करो ।
जयचंद डटे जो घर भीतर ,
उनको पहले बेघर बेकार करो ।
ख़त्म करो तुम 370 को ,
देव भूमि को साथ करो ।
एक देश एक नियम चले ,
समान संहिता की बात करो ।
आजाद वतन की आजादी से,
अब न कोई मज़ाक करो ।
ओ राजनीति के राणकारों ।
ओ सत्ता के फनकारों ।
अब तो बस प्रतिकार करो ।
खड़क भवानी पे धार धरो ।
अचूक निशाना हो जिसका ,
ऐसा अब हर प्रहार करो ।
न स्वागत न सत्कार करो ।
अब तो बस संहार करो ।
बहुत हुआ खेल आँख मिचौली का ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो।
इन कूटनीति के वादों पे ,
इन उलझे आधे से वादों पे ।
अब तनिक नहीं विश्वास करो ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो ।
कब तक गिनते गिनवाते जाओगे,
एक के बदले दस दस लाओगे ।
नाम रहे न विश्व पटल पर ,
अब ऐसा कोई इंतज़ाम करो ।
पा सम्पूर्ण विजय विश्राम करो ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो।
नही तनिक भी मेरी परवाह करो ।
करो करो बस शत्रु का संहार करो ।
शत्रु आ छुपे जब मेरे पीछे तब ,
तुम पहले मुझ पर ही प्रहार करो ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(119)
ओ सत्ता के फनकारों ।
भारत माता के बेटों की ,
कब तक बलि चढ़ाओगे ।
मातृ भूमि के लालों पर ,
घात पे घात कराओगे ।
अफ़सोस न हीं कोई पछतावा ।
बस घड़ियाली आँसू बहाओगे ।
पठानकोट उरी अब पुलवामा ।
कितनी बहनों का सुहाग छुड़ाओगे ।
ओ राजनीति के राणकारों ।
ओ सत्ता के फनकारों ।
बातों को अब विश्राम धरो ।
अब तो सीधा संग्राम करो ।
छुरा घोंपते जो छुप छुप कर ,
घर में घुसकर उनका संहार करो ।
न रहें जड़ें जमीं भीतर तक ,
जड़ पर ही अब बार करो ।
जयचंद डटे जो घर भीतर ,
उनको पहले बेघर बेकार करो ।
ख़त्म करो तुम 370 को ,
देव भूमि को साथ करो ।
एक देश एक नियम चले ,
समान संहिता की बात करो ।
आजाद वतन की आजादी से,
अब न कोई मज़ाक करो ।
ओ राजनीति के राणकारों ।
ओ सत्ता के फनकारों ।
अब तो बस प्रतिकार करो ।
खड़क भवानी पे धार धरो ।
अचूक निशाना हो जिसका ,
ऐसा अब हर प्रहार करो ।
न स्वागत न सत्कार करो ।
अब तो बस संहार करो ।
बहुत हुआ खेल आँख मिचौली का ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो।
इन कूटनीति के वादों पे ,
इन उलझे आधे से वादों पे ।
अब तनिक नहीं विश्वास करो ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो ।
कब तक गिनते गिनवाते जाओगे,
एक के बदले दस दस लाओगे ।
नाम रहे न विश्व पटल पर ,
अब ऐसा कोई इंतज़ाम करो ।
पा सम्पूर्ण विजय विश्राम करो ,
शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो।
नही तनिक भी मेरी परवाह करो ।
करो करो बस शत्रु का संहार करो ।
शत्रु आ छुपे जब मेरे पीछे तब ,
तुम पहले मुझ पर ही प्रहार करो ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(119)
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