शुक्रवार, 1 मार्च 2019

घर जले चिंगारियों से ,

घर जले चिंगारियों से , 
 चराग़ थे नही आफतों के लिए । 

निग़ाह दोस्ती थी कभी , 
सामने थे खड़े नफरतों के लिए ।

 वक़्त सा चलता रहा ,
 हर वक़्त वक़्त के अहसास से ,

 सफ़र रहा तारीखों सा ,
मोहताज से रहे शोहरतों के लिए ।

एक बिसात जिंदगी की ,
हर चाल शेह और मात सी ,

हार में जश्न जीत का,
मनाते ही चले दौलतों के लिए ।

"निश्चल"चले शिद्दत से ,
  इस सफ़र-ए-जिंदगी पर ,

न पाए चैन कभी ,
तरसते मिले मोहलतों के लिए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6 (121)

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