यूँ रास्ते चले , कुछ बाँटते चले ।
हसरत-ए-हालात , पास से चले ।
ये गुजरते दिन , दिन बदलकर ,
कल नही, साथ , आज से चले ।
बदलता सा रहा, हर दिन मुक़द्दर ,
क्यूँ जीतते , हार के , हाथ से चले ।
बदलती रही , तदबीरें , तक़दीरों सी ,
हाथ ,लकीरों में,मुक़द्दर नापते चले ।
मन मशोसता रहा, रूह का समंदर ,
ज़िस्म-ओ-जाँ जहां,बिसात पे चले ।
डूबता रहा, दरिया ही समंदर में ,
"निश्चल" किनारे क्यूँ ,साथ से चले ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
मन मशोसते रहे , रूह के समंदर ,
ज़िस्म ज़िस्म जहां , बिसात पे चले ।
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डायरी 6(121)
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