शनिवार, 27 जुलाई 2019

मुक्तक 761/769

761
 वो कुछ रिश्ते धीरे धीरे पिघलते रहे।
 जो ज़िदगी से धीरे धीरे निकलते रहे ।
 चलता रहा अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब का ,
 नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे बदलते रहे ।
....
762
बर्फ बन तपिश झेलते रहे ।
खामोशी से रिश्ते फैलते रहे ।
होते रहे ज़ज्ब रुख़सार पर ,
अश्क़ निग़ाहों से खेलते रहे ।
.... 
763
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते रहे ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते रहे ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्तों में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते रहे ।
.......
764
मुक़द्दर से मुक़द्दर बदलते रहे ।
साथ लिये मुक़द्दर यूँ चलते रहे ।
चढ़ते रहे सीढ़ियां हसरतों की ।
चाहत-ए-दर बंद से मिलते रहे ।
.......
765
हार के  व्यवहार से रहे ।
जीत के प्रतिकार से रहे ।
तम के ही अधिकार पर ,
सृष्टि के स्वीकार से रहे ।
....
766
कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।
कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।
ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,
मगर नज़्र के मलाल से रहे।
......
767
ये रास्ते ही भटकाते रहे ।
निशां क़दम भरमाते रहे ।
दूर थी न मंजिल कभी ,
ये रास्ते ही बहलाते रहे ।
.......
768
चल आ वर्तमान के सफर पर ।
इंसान की पहचान के सफर पर ।
छोड़ ख़याल ख़्वाब के पिंजरे में ,
बढ़ता चल ईमान के सफर पर ।
........
769
चल आ वर्तमान की डगर पर ।
इंसान की पहचान के सफर पर ।
छोड़ ख़याल ख़्वाब के पिंजरे में ,
बढ़ता चल ईमान के असर पर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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