शनिवार, 27 जुलाई 2019

782/785

782
वो लब्बोलुआब बता न सका ।
हुस्न-ओ-हिज़ाब उठा न सका ।
होती गई स्याह सुरमई शाम भी ,
चाँद रात का दामन हटा न सका ।
......
सारांश
....
वो इल्म क्यूँ भार सा रहा ।
वो हुनर से ही हारता रहा । 
क़तरे थे आब के आँखों मे ,
 वो खमोश नज़्र निहारता रहा ।
..... ...
783
धोके से धोखा खाता रहा ।
तंज जमाने के पाता रहा ।
न बदल सका फ़ितरत अपनी,
इल्म दुनियाँ पे लुटाता रहा ।
... ..
784
बदलता गया मैं हालात सा ।
वक़्त से वक़्त के साथ सा ।
एक चाँद सा चला आसमां पे ,
शबनम का लिए अहसास सा ।
... ...
785
वो सच कहाँ था ,जो सच कहा था ।
मेरे ही रहबर ने,मुझको ही ठगा था ।
पढ़ता रहा जो क़सीदे शान में मेरी ,
लफ्ज़ लफ्ज़ जिनमे भरा दगा था ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 3

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