शनिवार, 27 जुलाई 2019

मुक्तक 770/773

770
निग़ाहें निग़ाहों से मिलानी  है ।
मदहोशी नजरों की दिखानी है ।
वो डूबता है दामन में साँझ के ,
रात के आंगन में यूँ निशानी  है ।
.....
771
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते है ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते है ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्ते में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते है ।
... ....
772
पिघलते गये  कुछ रिश्ते वो धीरे धीरे ।
निकलते गये ज़िदगी से जो धीरे धीरे ।
चलते  गये अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब के  ,
बदलते गये नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे ।
....
773
गुज़रती गई ज़िंदगी, जैसे तैसे ।
बदलते रहे हालात, जाने कैसे ।
जो हारता रहा ,जीत कर हरदम ,
वो हारकर जीत को ,माने कैसे ।
... विवेक दुबे"निश्चल@..
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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