786
रुख हवा सा बदल जाते है लोग ।
जुबां कायम से टल जाते है लोग ।
करते है वादे जो अपने ईमान के ,
वादों से वो फिसल जाते है लोग ।
.......
787
घटना घटती है, माटी माटी से छंटती है ।
सृष्टि बनती है, बनकर फिर मिटती है ।
जीव चला जीवन पथ पग धर धीरे धीरे ,
आस लिए दूर क्षितिज पर दृष्टि टिकती है।
..... ...
788
कुछ यूँ अहसान बन गया वो ।
हर बात का ईमान बन गया वो ।
लेकर आया जिसे मैं मेरे घर में ,
बे-वज़ह मेहमान बन गया वो ।
......
789
रोशनीयाँ बर्फ सी पिघलती रही ।
हसरतें हालात से निकलती रही ।
छिटकते रहे उजाले क्षिति कोर से ,
रात भोर दामन में संभलती रही ।
......
790
कुछ ख़्याल खुशनुमा से ।
कुछ रहे अधूरे गुमा से ।
लिपटता ही रहा उजाला ,
उस जलती रही शमा से ।
...."निश्चल"@...
791
तुझे पिघलना होगा ।
अंगारों पे चलना होगा ।
स्वर्णिम आभा दूर क्षितिज पर ,
सूरज सा निकलना ढलना होगा ।
.... ..
792
स्वीकार किया खुद को खुद में
एहसास किया उसको खुद में ।
भेद रहा नहीं कहीं भी कोई ,
जो खोज लिया तुझको खुद में ।
.......
793
समझ जरा तासीर तेरी ।
जिस्म नहीं जागीर तेरी ।
ठहरा एक रात के वास्ते ।
जात है राहगीर तेरी ।
......
794
लिखता रहा सूरत-ए-हाल को ।
पिरो कर हर्फ़ हर्फ़ ख़्याल को ।
खिलती नही सूरत हालात की ,
लपेटे रहा अल्फ़ाज़ मलाल को ।
.... ..
795
छूटता हर किनारा सा रहा ।
खूब यूँ इक सहारा सा रहा ।
"निश्चल" वो सितारा आसमाँ पे ,
दूर निगाहों से दुलारा सा रहा ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 3
796
यह आवारगीयाँ मेरी ।
यह यलगारगीयाँ मेरी ।
करतीं रहीं गुस्ताखियाँ,
वक़्त से नादानियाँ मेरी।
.... ....
797
जो ख़ामोश सा रहता गया ।
वो सब कुछ कहता गया ।
चलता ही रहा सफ़र में ,
हालात ख़म सहता गया ।
(घुमाव)
...
798
लुटता लुटाता रहा निग़ाहों से,
ज़ज्ब खुशियाँ कूटता गया ।
न रहा बाँकी कही कुछ ,
मौन ही पीछे छूटता गया ।
........
799
हया से हारती हसरतें ।
निग़ाह से पुकारती हसरतें ।
उठकर मौजों के समंदर से ,
साहिल को दुलारती हसरतें ।
.... ...
800
तय नही है कुछ भी,
जीवन में जीवन का ।
उड़ता पंछी पिंजरे में ,
आकाश लिए मन का ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@..…
डायरी 3
रुख हवा सा बदल जाते है लोग ।
जुबां कायम से टल जाते है लोग ।
करते है वादे जो अपने ईमान के ,
वादों से वो फिसल जाते है लोग ।
.......
787
घटना घटती है, माटी माटी से छंटती है ।
सृष्टि बनती है, बनकर फिर मिटती है ।
जीव चला जीवन पथ पग धर धीरे धीरे ,
आस लिए दूर क्षितिज पर दृष्टि टिकती है।
..... ...
788
कुछ यूँ अहसान बन गया वो ।
हर बात का ईमान बन गया वो ।
लेकर आया जिसे मैं मेरे घर में ,
बे-वज़ह मेहमान बन गया वो ।
......
789
रोशनीयाँ बर्फ सी पिघलती रही ।
हसरतें हालात से निकलती रही ।
छिटकते रहे उजाले क्षिति कोर से ,
रात भोर दामन में संभलती रही ।
......
790
कुछ ख़्याल खुशनुमा से ।
कुछ रहे अधूरे गुमा से ।
लिपटता ही रहा उजाला ,
उस जलती रही शमा से ।
...."निश्चल"@...
791
तुझे पिघलना होगा ।
अंगारों पे चलना होगा ।
स्वर्णिम आभा दूर क्षितिज पर ,
सूरज सा निकलना ढलना होगा ।
.... ..
792
स्वीकार किया खुद को खुद में
एहसास किया उसको खुद में ।
भेद रहा नहीं कहीं भी कोई ,
जो खोज लिया तुझको खुद में ।
.......
793
समझ जरा तासीर तेरी ।
जिस्म नहीं जागीर तेरी ।
ठहरा एक रात के वास्ते ।
जात है राहगीर तेरी ।
......
794
लिखता रहा सूरत-ए-हाल को ।
पिरो कर हर्फ़ हर्फ़ ख़्याल को ।
खिलती नही सूरत हालात की ,
लपेटे रहा अल्फ़ाज़ मलाल को ।
.... ..
795
छूटता हर किनारा सा रहा ।
खूब यूँ इक सहारा सा रहा ।
"निश्चल" वो सितारा आसमाँ पे ,
दूर निगाहों से दुलारा सा रहा ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 3
796
यह आवारगीयाँ मेरी ।
यह यलगारगीयाँ मेरी ।
करतीं रहीं गुस्ताखियाँ,
वक़्त से नादानियाँ मेरी।
.... ....
797
जो ख़ामोश सा रहता गया ।
वो सब कुछ कहता गया ।
चलता ही रहा सफ़र में ,
हालात ख़म सहता गया ।
(घुमाव)
...
798
लुटता लुटाता रहा निग़ाहों से,
ज़ज्ब खुशियाँ कूटता गया ।
न रहा बाँकी कही कुछ ,
मौन ही पीछे छूटता गया ।
........
799
हया से हारती हसरतें ।
निग़ाह से पुकारती हसरतें ।
उठकर मौजों के समंदर से ,
साहिल को दुलारती हसरतें ।
.... ...
800
तय नही है कुछ भी,
जीवन में जीवन का ।
उड़ता पंछी पिंजरे में ,
आकाश लिए मन का ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@..…
डायरी 3
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