मैं चलता रहा ।
वो चलाता रहा ।
जीवन से बस कुछ,
इतना ही नाता रहा ।
हँसता रहा हर दम ,
दर्द होंठों पे सजाता रहा ।
बाँट के खुशियां दुनियाँ को ,
दर्द दिल में छुपाता रहा ।
होती रही निगाहें नम ,
अश्क़ दरिया बहाता रहा ।
जाता रहा दर पे रिश्तों के
पर न किसी को भाता रहा ।
हो सके न मुकम्मिल रिश्ते ,
रिश्तों को रिश्तों से मनाता रहा ।
"निश्चल" बस बास्ते दुनियाँ के ,
अपनो को अपना दिखाता रहा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 7
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