एक मुर्दों की बस्ती सी ।
पूछ रही अपनी हस्ती सी ।
स्वार्थ सजी दुकानों में ,
जाने बिकती सस्ती सी ।
ताल ठोक कर मैदानों में ,
करते सब नूरा कुश्ती सी ।
श्वेत सजे परिधानों में ,
अब दिखती न चुस्ती सी ।
हार गया है विनय निवेदन ,
पाई न कोई भी पुष्टि सी ।
हाथ उठा अब प्रभु के आगे ,
"निश्चल"मांगे भय से मुक्ति सी।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 7
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें