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कहीं दरिया मुरादों के , कहीं साहिल नहीं मिलते
कभी छूटे किनारों को , कोई हाँसिल नही मिलते ,
चला हूँ खोजता राहे ज़िंदगी को मुसलसल ही ,
किये जो क़त्ल मिरे अरमान, वो क़ातिल नही मिलते ।
जलाये सामने कोई मिरे शम्मा क्युं महफ़िल की ,
लफ्ज़ अल्फ़ाज महफ़िल में, बज़्म ग़ाफ़िल नही मिलते ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी6(145)
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