730
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।
न हो सके तर लब तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।
खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।
सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।
लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी6(141)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें