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122 12 2 122 122
अँधेरो में बिखरी उजाली रही है ।
चला हूँ नज़र राह आती रही है ।
दिखाते रहे हाल हालात को भी ,
ज़ख्म ये पुराने निशानी रही है ।
मिला है नसीबा मुक़द्दर जहाँ भी ,
जिंदगी तक़दीर से मिलाती रही है ।
मिलाते रहे ज़िस्म-ओ-जां निगाहें ,
यहाँ रूह भी तो रूहानी रही है ।
तरसता है वो चाँद भी चाँदनी को ,
जुदा चाँदनी भी दिवानी रही है ।
कटी है निग़ाहों में जो रात सारी ,
वही रात ही तो सुहानी रही है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(143)
मिला है मुकद्दर मुक़द्दर से भी कभी ,
25/10/23
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