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रोक लिया इन अश्कों को ,
उन मुस्कानों की ही ख़ातिर ।
हार चला ख़ुद को ख़ुद से ही ,
उन अरमानों की ही ख़ातिर ।
होकर ग़ुम अपने उजियारों में ,
उनकी पहचानों की ख़ातिर ।
शान्त भाब स्तब्ध निगाहें ,
अपने इमानों की ख़ातिर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(142)
Blog post9/6/19
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