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परिपथ पर जो , बढ़ता चलता है ।
दिन रात वही तो, गढ़ता चलता है ।
घूम रही धरती, अपनी ही धूरी पर ,
परिपथ साथ सदा, मढ़ता चलता है ।
चलती ही है यह, नियति निरंतर ,
जीवन पाठ यही, पढ़ता चलता है ।
जीव चले शृंगारित, ज़ीवन पथ पर ,
नित रतन नये , जड़ता चलता है ।
एक स्वर्णिम आभा, क्षितिज तले ,
साँझ तले जीव, बिछड़ता चलता है ।
पूर्ण हुआ पथ , जब चलते चलते ,
बनता न तब कुछ ,बिगड़ता चलता है ।
"निश्चल"अटल अचल है दिनकर तो ,
पर सचल सदा जड़ता करता चलता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(139)
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