729
सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।
बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।
होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,
होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।
बह गया दर्या , वक़्त का ही वक़्त से ,
करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।
थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,
ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।
"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,
झरते रहे निग़ाहों से , मलालात कुछ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(140)
Blog post 25/10/23
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें