कर्तव्य पथ बड़े हों, सत्य से सजे हों ।
सत्कर्म से चलें जो, *उन्नति के द्वार* खुले हों।
समय चाहे विकट हो,बाधाएँ भी अथक हों ।
सत्य से न डिगे जो, *उन्नति के द्वार* खुलें हों।
मरुस्थल जो मिले हों,पग पग जले हों ।
निर्भीक चले जो, *उन्नति के द्वार* खुले हों ।
साँझ का आभास हो, क्षितिज सा प्रकाश हो।
मन दृढ़ विश्वास जो, *उन्नति के द्वार* खुले हों।
सत्य की सुगंध हो, हौंसले भी बुलंद हों।
जीत लें असत्य सभी,इतना सा द्वंद हो ।
..... विवेक दुबे ©.....
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