बुधवार, 23 मई 2018

ज़ीवन की राहों में

 वो रात बड़ी यह दिन छोटे से ।
 वादों के अहसासों को खोते से ।

        वादों के इस बंजर में ही ,
         यादों को अक्सर बोते से ।

 तप्त नीर नयन सींचे जिनको ,
 कुछ कुम्हलाये अंकुर खोते से ।

         सपनों के रैन बसेरों में ,
         भोर भए तक रहने से ।

   सांझ चली आने के पहले ,
   पग पग चलते ही रहने से ।

            हर सांझ एक नया ठिकाना ,
            फिर नई सहर होने पहले से
   
      बढ़ता चल यूँ ही मंजिल पे ,
      सफ़र तमाम होने पहले से ।

  जीवन की इन राहों में ,
 "निश्चल"नही बिछौने से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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