इस भूँक का क्या करूँ ,
बढ़ती ही जाती है ।
सियाही मेरी कलम ने ,
जितनी उगाली है ।
हुए सफ़े पर सफ़े,
स्याह हजारों ।
सुनहरीयत आना ,
कभी बाँकी है ।
लिखकर मिटा न सका ,
किसी बात को ।
हर बात में मुझे ,
जिंदगी नजर आती है ।
मैं गुनगुनाता हुँ ,
अपने ही ख्याल को ,
जिंदगी यूँ मुझे ,
अक्सर लुभाती है ।
तिनका नही ,
जो उड़ जाऊँ में,
मगर हवा ख्याल की ,
मुझे उड़ाती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
बढ़ती ही जाती है ।
सियाही मेरी कलम ने ,
जितनी उगाली है ।
हुए सफ़े पर सफ़े,
स्याह हजारों ।
सुनहरीयत आना ,
कभी बाँकी है ।
लिखकर मिटा न सका ,
किसी बात को ।
हर बात में मुझे ,
जिंदगी नजर आती है ।
मैं गुनगुनाता हुँ ,
अपने ही ख्याल को ,
जिंदगी यूँ मुझे ,
अक्सर लुभाती है ।
तिनका नही ,
जो उड़ जाऊँ में,
मगर हवा ख्याल की ,
मुझे उड़ाती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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