मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

एक उम्र गुजरती है

यह ख्याल रहे ख़्याल से ।
अक़्स ढ़लते रहे निग़ाह से ।

खोजते रहे रौनकें जमाने में,
फिर भी तंग दिल रहे हाल से ।


एक उम्र गुजरती है ,
पलकों की पोर से ।

 ज़ज्बात पिरोती है ,
 अश्कों की डोर से ।

साँझ तले टूटते ख़्वाब है,
साथ चले थे जो भोर से ।

तिलिस्म सा ही रहा है ,
खींचता कोई छोर से ।

नाकाफी रहा साज-ए-नज़्म,
"निश्चल" चला दूर शोर से ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 5(158)




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