सोमवार, 18 जून 2018

मुक्तक 435/437

434
 उलझने उलझती गई ।
 हसरते सुलझती गई ।
 जिंदगी रह गई ख़्वाब सी ,
 और ज़िंदगी गुजरती गई ।
.... 
435

:क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ मैं ।
जिंदगी को कहाँ मोड़ दूँ मैं ।
 गुजर जाता है हर मुक़ाम ,
 जज़्बों को जो  होड़ दूँ मैं।
.... 


437
आज फिर मैं कोई ग़जल कह दूँ ।
आज फिर दिल-ऐ-दखल कह दूँ ।
 निग़ाह अश्क़ गिरते क़तरे को ,
 आज फिर पूरा समंदर कह दूँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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