434
उलझने उलझती गई ।
हसरते सुलझती गई ।
जिंदगी रह गई ख़्वाब सी ,
और ज़िंदगी गुजरती गई ।
....
435
:क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ मैं ।
जिंदगी को कहाँ मोड़ दूँ मैं ।
गुजर जाता है हर मुक़ाम ,
जज़्बों को जो होड़ दूँ मैं।
....
437
आज फिर मैं कोई ग़जल कह दूँ ।
आज फिर दिल-ऐ-दखल कह दूँ ।
निग़ाह अश्क़ गिरते क़तरे को ,
आज फिर पूरा समंदर कह दूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
उलझने उलझती गई ।
हसरते सुलझती गई ।
जिंदगी रह गई ख़्वाब सी ,
और ज़िंदगी गुजरती गई ।
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435
:क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ मैं ।
जिंदगी को कहाँ मोड़ दूँ मैं ।
गुजर जाता है हर मुक़ाम ,
जज़्बों को जो होड़ दूँ मैं।
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437
आज फिर मैं कोई ग़जल कह दूँ ।
आज फिर दिल-ऐ-दखल कह दूँ ।
निग़ाह अश्क़ गिरते क़तरे को ,
आज फिर पूरा समंदर कह दूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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