सोमवार, 18 जून 2018

झड़ता रहा पत्तों सा

झड़ता रहा पत्तो सा ।
चलता रहा रस्तों सा ।

 मिला नही कोई ठिकाना ,
  अंजाम रहा किस्तों सा ।

 वो टपका बून्द की मांनिद ,
 अंजाम हुआ अश्कों सा ।

  सहकर तंज दुनियाँ के ,
  रह गया   दरख्तों सा  ।

  जीतकर जंग दुनियाँ की ,
  उलझता गया  रिश्तों सा ।

 आजमाइशों की जकड़ से,
 कसता रहा मुश्कों सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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