हम तो अदने नादान से ।
गुमनामी की पहचान से ।
आये है एक नज़्म कहने को,
तेरी महफ़िल में मेहमान से ।
चश्म चढ़ाये मोहोब्बत का ,
चाह लिए मिलने इंसान से ।
देता रहा आवाज़ ज़मीर जमीं पे ,
उतरता नही कोई नीचे गुमान से।
खोजती रही चाह चाहतों को ,
हो गई ग़ुम हसरतें अरमान से ।
दौर है ये दुनियां एक शैतान का ,
बात कहता है"निश्चल"ईमान से ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 7
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