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सुख की छांया सौंप सदा ही,
जेठ धूप से तपे पिता ।
कंटक पथ सी राहों में ,
नर्म बिछौने से बिछे पिता ।
जी कर अपने ही संतापों में ,
धैर्य सदा ही धरे पिता ।
टकराकर हर संकट से ,
संकट सारे ही हरे पिता।
मेरे एक सुख की ख़ातिर,
संघर्षों से सजे पिता ।
बांट प्रसाद में सुख अपने,
सारे सुख तजे पिता ।
सपने जब वो कुछ गढ़ लेते,
सजल नयन भरे पिता ,
मेरे एक सपने की ख़ातिर ,
अपने सपने तजे पिता ।
सींच रहा अमृत रस ,
कंठ हलाहल भरे पिता ।
सुख की छांया सौंप सदा ही ,
जेठ धूप सा तपे पिता ।
चाह नही कोई फिर भी,
चाह न कभी कहे पिता ,
जीता जिनकी ख़ातिर वो,
पा जाए वो कुछ कहे पिता ।
"निश्चल" रहकर चलता ,
राहों पर गतिमान पिता ।
तोड़ तोड़कर तारे अम्बर से ,
झोली मेरी भरें पिता ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 7
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