शनिवार, 9 जनवरी 2021

पिता

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सुख की छांया सौंप सदा ही,

 जेठ धूप से तपे पिता ।

कंटक पथ सी राहों में ,

नर्म बिछौने से बिछे पिता ।


जी कर अपने ही संतापों में , 

धैर्य सदा ही धरे पिता ।

 टकराकर हर संकट से ,

 संकट सारे ही हरे पिता।


 मेरे एक सुख की ख़ातिर,

 संघर्षों से सजे पिता ।

बांट प्रसाद में सुख अपने,

 सारे सुख तजे पिता ।


सपने जब वो कुछ गढ़ लेते,

 सजल नयन भरे पिता ,

मेरे एक सपने की ख़ातिर ,

अपने सपने तजे पिता ।


सींच रहा अमृत रस ,

कंठ हलाहल भरे पिता ।

सुख की छांया सौंप सदा ही ,

जेठ धूप सा तपे पिता ।


 चाह नही कोई फिर भी,

  चाह न कभी कहे पिता ,

जीता जिनकी ख़ातिर वो,

 पा जाए वो कुछ कहे पिता ।


 "निश्चल" रहकर चलता ,

राहों पर गतिमान पिता ।

तोड़ तोड़कर तारे अम्बर से ,

झोली मेरी भरें पिता ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 7


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