1043
पहचान पहचानो की मोहताज रही ।
शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।
कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,
जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।
लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में ,
पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।
निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,
दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।
न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,
मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।
बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,
"निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।
डायरी 7
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें