बुधवार, 7 सितंबर 2022

पहचानो की मोहताज

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पहचान पहचानो की मोहताज रही ।

शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।

कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,

जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।

लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में  ,

पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।

निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,

दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।

  न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,

  मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।

   बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,

  "निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।


डायरी 7




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