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एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
आश्रयहीन अभिलाषाएं ।
नभ विचरित पँख फैलाएं ।
निःश्वास प्राण सांसों में ।
लम्पित लता बांसों में ।
बस आशाएँ अभिलाषाएं ।
ओर छोर न पा पाएं ।
मन निर्बाध विचारों में ।
जीवन के सहज किनारों में ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
जब शशि गगन में आए ।
निशि तरुणी रूप सजाए ।
विधु भरता बाहों में ।
विखरें दृग कण आहों में ।
प्रफुल्लित धरा शिराएं ।
तृण कण जीवन पाएं ।
अचल रहा दिनकर राहों में ।
नव चेतन भर कर प्रानो में ।
नित माप रहे पथ की दूरी को ।
छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।
ये सतत नियति निरन्तर सी ।
काल तले करती न अंतर सी ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 18/7/18
डायरी 5(62)
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