शनिवार, 10 सितंबर 2022

एक विस्तृत नभ सम

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एक विस्तृत नभ सम ।

 भू धरा धरित रजः सम ।

         आश्रयहीन अभिलाषाएं ।

        नभ विचरित पँख फैलाएं ।

निःश्वास प्राण सांसों में ।

लम्पित लता बांसों में ।

         बस आशाएँ अभिलाषाएं ।

         ओर छोर न पा पाएं ।

   मन निर्बाध विचारों में ।

  जीवन के सहज किनारों में ।

   

          एक विस्तृत नभ सम ।

          भू धरा धरित रजः सम ।


   जब शशि गगन में आए ।

    निशि तरुणी रूप सजाए ।

          विधु भरता बाहों में ।

          विखरें दृग कण आहों में ।     

   प्रफुल्लित धरा शिराएं ।

    तृण कण जीवन पाएं ।

            अचल रहा दिनकर राहों में ।

             नव चेतन भर कर प्रानो में ।  

 नित माप रहे पथ की दूरी को ।

 छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।

        ये सतत नियति निरन्तर सी ।

        काल तले करती न अंतर सी ।     

    एक विस्तृत नभ सम ।

    भू धरा धरित रजः सम ।

            

  .. विवेक दुबे"निश्चल"@....

Blog post 18/7/18

डायरी 5(62)

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