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जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।
एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।
होश निग़ाहों से दुनियाँ देखो ,
हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।
रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,
फिर भी मैखाने में मौन बड़ा है ।
फूल चमन में खूब खिले देखो ,
अंग अंग पर रंग,बे-रंग चढ़ा है ।
गले मिलें सब आँख मींचकर ,
साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।
अपनो की अपनी दुनियाँ में ,
अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।
ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,
"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 7
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