स्त्री
शक्ति स्वरूपा ,
लक्ष्मी रूपा ।
विद्या दयनी ,
रिद्धि सिद्धि प्रदायनी ।
गौरी बन रचा गणेश ,
सृजन किया अनुपम सृष्टि का ,
मैं ही सृष्टि दिया सन्देश ।
आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ तुम ही से ।
स्त्री तुम ही हो सृष्टि का आधार ।
देती हो हर दम देती ही रहती हो,
करती नहीं कभी इंकार ।
जब जब पाप बड़े धरती पर ,
मची हाहाकार ।
तब रूप धरा चंडी का ,
दुष्टों का किया संहार ।
सीता बन राह बनी रघुवर की ,
रावण का हुआ संहार ।
पांचाली बन अहसास कराया ,
स्त्री नहीं है व्यापार।
नष्ट हुआ कुरु बंश ,
जिसने किया नहीं स्त्री का मान ।
तब हो या हो अब ,
तब तब खुशियाँ छाई ,
जब जब तुम्हे मान मिला ।
तब तब जग अंधियारी छाई ,
जब जब अपमान मिला ।
ओ स्त्री तुम ने , बस तुम ने ही ।
भाव समर्पण से ,यह सृष्टि रचाई ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@...
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