शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

ओढ़ कर निकलता हूँ

ओढ़ कर निकलता हूँ घर से ,
 जिम्मेवारियों का कफ़न।
 यूं तो हमें भी खूब आता है ,
  यह शायरी का फ़न ।
 मज़बूर हूँ घर देखूँ ,
 या मुशायरे करूँ।

 हमने अक़्सर शायरो को ,
 फ़ांके करते देखा है ।
  पैर में टूटी चप्पल,
  कांधे पर थैला है।
 शायर कल भी अकेला था।
 वो तो आज भी अकेला है।
 पढ़ते है तब उसे बड़ी शान से,
 जब दुनियां सेअलविदा होता है।
        ....."निश्चल" विवेक दुबे....®

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