हर दर्द कागज़ समेटते रहे ।
बस हम लकीरें खैचते रहे ।
कुछ अल्फाज़ की ख़ातिर,
मेरे जज़्बात से खेलते रहे ।
सो गई रंगीनियाँ महफ़िल की ,
ता-रात चराग़ हम जलते रहे ।
दूर न थीं रौशनियाँ फ़जर की,
साथ ईशा के हम चलते रहे ।
कुछ क़िस्से लिखते रहे ।
कुछ दास्तां बयां करते रहे ।
हम ख़ातिर एक ग़ुनाह की ,
बार बार ग़ुनाह करते रहे ।
...विवेक दुबे"निश्चल"©....
बस हम लकीरें खैचते रहे ।
कुछ अल्फाज़ की ख़ातिर,
मेरे जज़्बात से खेलते रहे ।
सो गई रंगीनियाँ महफ़िल की ,
ता-रात चराग़ हम जलते रहे ।
दूर न थीं रौशनियाँ फ़जर की,
साथ ईशा के हम चलते रहे ।
कुछ क़िस्से लिखते रहे ।
कुछ दास्तां बयां करते रहे ।
हम ख़ातिर एक ग़ुनाह की ,
बार बार ग़ुनाह करते रहे ।
...विवेक दुबे"निश्चल"©....
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