रविवार, 13 मई 2018

मुक्तक 330से 340

330
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
  खिले मन कमल शांत सरोवर । 
 शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
 शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे । 
...331.
 मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
 बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर । 
... 332
 हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
 यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा । 
 जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
 ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
 दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
 उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
 जितनी सलवटें मिटाता रहा ।

....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
 खुशियों से दूर रखा था ।
 कर कर वादे झूंठे से ,
 हर ग़म काफूर रखा था ।
....335

लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
 हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
 डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
 ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
 यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
  कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
 दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
 यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
  जो वो मेरे पास आता गया ।
 भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
 वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
 यूँ खुद को छांटता गया ।
 न थी खुदी कोई पास मेरे ,
  इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
 रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
 पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
 रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
 यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा  । 
 न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
 यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
.... 

ज़ाहिर होकर भी ,
 न ज़ाहिर सा रहा ।
 डूब न सका समंदर में ,
 होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
 निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@.

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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