330
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
खिले मन कमल शांत सरोवर ।
शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे ।
...331.
मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर ।
... 332
हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा ।
जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
जितनी सलवटें मिटाता रहा ।
....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
खुशियों से दूर रखा था ।
कर कर वादे झूंठे से ,
हर ग़म काफूर रखा था ।
....335
लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
जो वो मेरे पास आता गया ।
भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
यूँ खुद को छांटता गया ।
न थी खुदी कोई पास मेरे ,
इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
....
ज़ाहिर होकर भी ,
न ज़ाहिर सा रहा ।
डूब न सका समंदर में ,
होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
खिले मन कमल शांत सरोवर ।
शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे ।
...331.
मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर ।
... 332
हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा ।
जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
जितनी सलवटें मिटाता रहा ।
....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
खुशियों से दूर रखा था ।
कर कर वादे झूंठे से ,
हर ग़म काफूर रखा था ।
....335
लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
जो वो मेरे पास आता गया ।
भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
यूँ खुद को छांटता गया ।
न थी खुदी कोई पास मेरे ,
इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
....
ज़ाहिर होकर भी ,
न ज़ाहिर सा रहा ।
डूब न सका समंदर में ,
होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
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