रविवार, 13 मई 2018

मुक्तक 341/344

341
खोजता हर शख्स कुछ न कुछ , 
   दुनियाँ की निगाहों में ।
 यूँ गिरता हर शख्स खुद-वा-खुद ,
    खुद की निगाहों में ।
... 
342
उम्र घटती गई और,
 कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
 तलाश-ऐ-जिंदगी में , 
 जिंदगी से गुजरते गए ।
 .... ..
343
भाव उभरते है ।
 अर्थ संवरते है ।
 सज हृदय पीड़ा से ,
  शब्द लिपटते हैं ।
......
344
जीवन मे विश्रांति कैसी ।
 कदम कदम भ्रांति कैसी ।
 डूब चलें मन के भावों में ,
 तब अर्थो की संक्रांति कैसी ।
 ....

मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
 दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@ .
Blog post 13/5/18

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